महाभारत में रंतिदेव नामक एक राजा का वर्णन मिलता है जो गोमांस परोसने के कारण यशवी बना. महाभारत, वन पर्व (अ. 208 अथवा अ.199) में आता है
राज्ञो महानसे पूर्व रन्तिदेवस्‍य वै द्विज
द्वे सहस्रे तु वध्‍येते पशूनामन्‍वहं तदा
अहन्‍यहनि वध्‍येते द्वे सहस्रे गवां तथा
समांसं ददतो ह्रान्नं रन्तिदेवस्‍य नित्‍यशः
अतुला कीर्तिरभवन्‍नृप्‍स्‍य द्विजसत्तम ---- महाभारत, वनपर्व 208 199/8-10


अर्थात राजा रंतिदेव की रसोई के लिए दो हजार पशु काटे जाते थे. प्रतिदिन दो हजार गौएं काटी जाती थीं
मांस सहित अन्‍न का दान करने के कारण राजा रंतिदेव की अतुलनीय कीर्ति हुई.
इस वर्णन को पढ कर कोई भी व्‍यक्ति समझ सकता है कि गोमांस दान करने से यदि राजा रंतिदेव की कीर्ति फैली तो इस का अर्थ है कि तब गोवध सराहनीय कार्य था, न कि आज की तरह निंदनीय



महाभारत में गौ
गव्‍येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्‍सरमिहोच्यते --अनुशासन पर्व, 88/5
अर्थात गौ के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों की एक साल के लिए तृप्ति होती है
Wednesday, February 10, 2010

वेदों की निन्‍दक गीता

साभार पुस्‍तकः क्‍या बालू की भीत पर खडा है हिन्‍दू धर्म?, विश्‍व बुक, एम12, कनाट सरकस, नई दिल्‍ली
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Vedon Ki Nindak Geeta
http://www.scribd.com/doc/26658063/Vedon-Ki-Nindak-Geeta
Tuesday, February 9, 2010

महाभारत की सेना

कुरूक्षेत्र का युद्ध क्या ऐतिहासिक घटना है और इस मैं कितनी सेनाओं ने भाग लिया? कहीं यह कपोलकल्पना तो नहीं!
यह युद्ध एक प्रकार से विश्वयुद्ध था, महाभारत में प्रयुक्त वरूणास्त्र, आगनेयास्त्र आदि प्राचीनकाल के विज्ञान की देन मान संतोष किया जा सकता है पर इस में भाग लने वाली सेनाओं की संख्या पर विश्वास नहीं होता. पहले भारत और फिर महाभारत के नाम से प्रसिद्ध युद्ध की विचारणीय बातें
महाभरत में कौरव और पांडव पक्षों से अठारह अक्षौहिणी सेना ने भाग लिया था.
अक्षौहिणी का अर्थ
सुत पुत्र वैशंपायन बोले ‘‘एक रथ, एक हाथी, पांच पैदल मनुष्य और तीन रथों को ‘पत्ति‘ कहा जाता हे, विद्वान तीन पत्तियों का एक सेनामुख और तीन सेनामुखों का एक गुल्म कहते हैं. तन गुल्मों का एक गण, ती गणों की एक वाहिनी और तीन वाहिनियों की एक पृतना होती है. तीन पृतनाओं की एक चमू और तीन चमू की एक अनीकिनी होती है. अनीकिनी के दस गुना को ही विद्वानों ने अक्षौहिणी बताया है ( वही 2,19-22)
एक अक्षौहिणी में रथ, हाथी, घोडे और पैदल की संख्या वैशंपायनजी ने बताई, गणित के जानकारों ने बताये रथों की संख्या 21,870 बताई है, हाथियों की संख्या भी इतनी ही, अक्षौहिणी में पैदल मनुष्यों की संख्या 1,09,350 है, घोडों की संख्या 65,610 बताई गई हैं, कौरवों और पांडवों की सेना में इसी गणना के अनुसार 18 अक्षोहिणी सेना एकत्र हुई थी आदि पर्व,
(2,23-28) दोनों पक्षों की कुल मिला कर
हाथी 21,870 गुणा 18 = 3,93,660
रथ 21, 870 गुणा 18 = 3,93,660
पैदल 1,09,350 गुणा 18 = 19,68,300
घोडे 65,610 गुणा 18 = 11,80,980
एक घोडे पर एक सवार बैठा होगा, हाथी पर कम से कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है, एक पीलवान और दूसरा लडने वाला योद्धा, इसी प्रकार एक रथ में दो मनुष्य और चार घोडे रहे होंगें, इस प्रकार महाभारत की सेना के मनुष्यों की संख्या कम से कम 46,81,920 और घोडों की संख्या, रथ में जुते हुओं को लगा कर 27,15,620 हुई इस संख्या में दोनों ओर के मुख्य योद्धा कुरूक्षेत्र के मैदान में एकत्र ही नहीं हुई वहीं मारी भी गई,
उपर गिनाई गई सेनाओं को यदि बोरों की तरह एकदूसरे से सटाकर बराबर बराबर भी खडा किया जाए तो कुरूक्षेत्र का मैदान ही नहीं, उस जैसे कमसे कम दस जिलों की भूमि की आवश्यकता पडेगी,
युद्ध 18 दिन चला था
प्रतिदि मृतकों को जला दिया जाता होगा, प्रति दिन 1,96,830 मृतकों को जलाने के लिए कितनी लकडी चाहिए, कितनी भूमि चाहिए, एक अक्षौहिणी में कमसे कम दो लाख मनुष्य तो रहे ही होंगे, इतने मुरदे जलाने के लिए प्रतिदिन लकडी ढोने वाले कितने मजदूर लगाए गय और कितनी दूर तक जंगल साफ हो गए होंगे, ऐसे बहुत से प्रश्‍नों का उत्तर नहीं मिलता, जानवरों और इतनी संख्‍या के सैनिकों का खाने का क्‍या पबन्‍ध था, हाथी घोडों के लिये इतनी बडी मात्रा में चारा सब कल्‍पना से बाहर की बातें

पहले इस गंथ का नाम ‘जय इतिहास‘ था इसकी श्लोक संख्या 6,000 थी बाद में यही ग्रंथ 24000 श्लोंको वाला ‘भारत‘ कहलाया, आजकल इस का नाम महाभारत है तथा इस की श्लोक संख्या बढते बढते लगभग एक लाख हो गई है,

इस लेख को विस्‍तार से पढने के लिये लायें
पुस्तकः कितने अप्रासंगिक हैं धर्म ग्रंथ
लेखकः स. राकेशनाथ, पृष्ठ 298 से 300 तक
336 पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य 70 रूपये
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दिल्ली बुक क.
एम 12, कनाट सरकस, नई दिल्ली . 110001

सरिता व इस की संबंधित पत्रिकाओं में समय समय पर हिंदू समाज, प्राचीन भारतीय संसकृति, आर्थिक, सामाजिक तथा पारिवारिक समस्याओं पर प्रकाशित विचारणीय लेखों के रिप्रिंट अब 12 सैटों में उपलब्ध, हर सेट में लगभग 25 लेख

पुस्तकः हिंदू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास
हिंदू समाज को पथभ्रष्ट करने वाले इस संत कवि के साहित्यिक आडंबरों की पोल खोलकर उस की वास्तविकता उजागर करना ही इस पुस्तक का उददेश्य है

पुस्तक, रामायणः एक नया दृष्टिकोण

प्रचलित लोक धारणा के विपरीत कोई धर्म ग्रंथ न होकर एक साहित्यिक रचना है, इसी तथ्य को आधार मानते हूए रामायण के प्रमुख पात्रों, घटनाओं के बारे में अपना चिंतन प्रस्तुत किया है, रामायण की वास्तविकता को समझने के लिए विशेष पुस्तक

पुस्तकः हिंदू इतिहासः हारों की दास्तान
प्रचलित लोक धारणा के विपरीत कोई धर्म ग्रंथ न होकर एक साहित्यिक रचना है, इसी तथ्य को आधार मानते हुए रामायण के प्रमुख पात्रों, घटनाओं के बारे में अपना चिंतन प्रस्तुत किया है रामायण की वास्तविकता को समझने के लिए विशेष पुस्तक

पुस्तकः क्या बालू की भीत पर खडा है हिंदू धर्म?
862 पृष्ठ मूल्य 175 रूपये

पुस्तकः कितने अप्रासंगिक हैं धर्म ग्रंथ
लेखक राकेशनाथ
336 पृष्ठ मूल्य 70 रूपय

पुस्तकः हिंदू संस्‍कृतिः हिन्‍दुओं का सामाजिक विषटन

पुस्तकः कितना महंगा धर्म

English book:
The Ramayana : A new Point of view
Hindu: A wounded society
The history of Hindus: the Saga of defeats
A study of the ethics of the banishment of Sita
Tulsidas: Misguider of Hindu society
The Vedas; the quintessence of Vedic Anthologies
India: what can it teach us!
God is my एनेमी


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Thursday, January 28, 2010

सावरकर मिथक और सच

वीर वावरकर की पोल खोलने वाली पुस्‍तक,
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पटेल का शक कि यह गांधी का क़ातिल है गुमनामी की मौत मरने वाला यह कथित वीर, अंग्रेज दोस्‍त, आज संसद में गांधी के बराबर में इसकी तस्‍वीर लगी है, इसके नाम पर हवाई अडडे का नाम रखा गया, काले पानी की सजा में मुसलमान पठानों जल्‍लादों द्वारा सताये जाने का बदला जिन्‍दगी भर मुसलमानों से लेता रहा, यह किताब हिन्‍दुत्‍व पर भी कडा प्रहार करती है, मनुस्‍मृति से नारी और पुरूष्‍ा बारे बडी दिलचस्‍प जानकारियां दी गई हैं, लेखक को इस विषय पर सच्‍चाई प्रस्‍तु करने पर हजार बार सलाम
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Saturday, January 16, 2010

भरत, भारत और भारतीय

संस्‍कृत के महान कवि कालिदास ने अपने 'अभिज्ञानशाकुंतलम' में लिखा है कि विश्‍वामित्र, ऋषि या मुनि तपस्‍या कर रहा थ, उसने मेनका स्त्री को देखा और तप छोड कर 'काम' के चक्‍कर में पड गया, एक लडकी को जन्‍म दिया, उसे वन में छोड कर दोनों भाग गए, जैसे आज लडकियों से पीछा छुडाने के लिए कहीं भी छोड देते हैं, यह प्राचीन भारतीय परंपरा है
कण्‍व ऋषि करूणावश उस लडकी को पालता है और उसे शकुंतला नाम देता है, जब कण्‍व कहीं गया हुआ था तब महान राजा दुष्‍यंत ने आश्रम में प्रवेश किया और उस लडकी के साथ विश्‍वामित्र-मेनका वाली सारी कामक्रिया दोहरा दी, ध्‍यान रहे यह सब आश्रम में हुआ, कण्‍व जब आश्रम में वापस आता है तो वह इस सब के लिए किसी को भलाबुरा नहीं कहता, क्‍योंकि जिसने यह सब किया वह समर्थ है, वह राजा है, अतः कण्‍व ऋषि कहता हैः
'वत्‍से, दिष्‍ट्या धूमोपरूद्धदूष्‍टेरपि यजमानस्‍य पावकस्‍यैव मुखे
आहुतिर्निपतिता सुशिष्‍यपरिदत्तेव विद्या अशेचनीयासि में संवृत्ता.
अद्यैव त्‍वाम् ऋषपिरिरक्षितां कृत्‍वा भर्त्तुः सकाशं विसजयामि.'
(अभिज्ञानशाकुंतलम् अंक 4)

अर्थात, है पुत्री, जिस की दृष्टि हवन के धुएं से रूंध गई थी, उस यजमान की भी आहुति (इधर-उधर न पड कर) अग्नि के मुख में ही पडी है. किसी अच्‍छे शिष्‍य को दी हुई विद्या के समान तू मेरे लिए निश्चिंता का कराण बनी है. आज ही मैं तुझ ऋषियों के साथ तेरे पति के पास पहुंचा दूंगा

कण्‍व द्वारा भेजी शकुंतला को राजा दुष्‍यंत पहचानने से ही मना कर देता है, पति द्वारा त्‍यागी हुई वह अकेली औरत वन में रहती है और एक पुत्र को जन्‍म देती है, जिस का नाम भरत था, बहुत वर्षों बाद, बूढा होने पर, राजा उसे अपना लेता है क्‍योंकि उसकी कोई संतान पैदा नहीं हुई थी. इसी इकलौते पुत्र को अपनी जीवन की संध्‍या में अपना लेना एक विवशत थी क्‍योंकि उसे ऐसा कोई चाहिए था जो राज्‍य का उत्तराधिकारी हो, जो उसकी अंत्‍येष्टि करे और उसे श्राद्ध के नाम पर मरणोपरांत पंडों को रसद मुहैया करो, यदि शकुंतला की संतान पुत्री होती तब भी दुष्‍यंत ने उसे मुंह नहीं लगाना था, इस प्रकार भरत को राजसिंहासन पर बैठा कर खुद तप करके परलोक सुधारने के लिए वन को चल देता है, कहते हैं इसी भरत के नाम पर भारत की संस्‍कृति 'भारतीय संस्कृति' है.

साभारः सरिता, अगस्‍त (द्वितीय) 2009 पृष्‍ठ 48

पंडित पांडुरंग वामन काणे ने लिखा है ''ऐसा नहीं था कि वैदिक समय में गौ पवित्र नहीं थी, उसकी 'पवित्रता के ही कारण वाजसनेयी संहिता (अर्थात यजूर्वेद) में यह व्यवस्‍था दी गई है कि गोमांस खाना चाहिए'' --धर्मशास्‍त्र विचार, मराठी, पृ 180)

महाभारत में गौ
गव्‍येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्‍सरमिहोच्यते --अनुशासन पर्व, 88/5
अर्थात गौ के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों की एक साल के लिए तृप्ति होती है


मनुस्मृति में
उष्‍ट्रवर्जिता एकतो दतो गोव्‍यजमृगा भक्ष्‍याः --- मनुस्मृति 5/18 मेधातिथि भाष्‍य
ऊँट को छोडकर एक ओर दांवालों में गाय, भेड, बकरी और मृग भक्ष्‍य अर्थात खाने योग्‍य है


महाभारत में रंतिदेव नामक एक राजा का वर्णन मिलता है जो गोमांस परोसने के कारण यशवी बना. महाभारत, वन पर्व (अ. 208 अथवा अ.199) में आता है
राज्ञो महानसे पूर्व रन्तिदेवस्‍य वै द्विज
द्वे सहस्रे तु वध्‍येते पशूनामन्‍वहं तदा
अहन्‍यहनि वध्‍येते द्वे सहस्रे गवां तथा
समांसं ददतो ह्रान्नं रन्तिदेवस्‍य नित्‍यशः
अतुला कीर्तिरभवन्‍नृप्‍स्‍य द्विजसत्तम ---- महाभारत, वनपर्व 208 199/8-10

अर्थात राजा रंतिदेव की रसोई के लिए दो हजार पशु काटे जाते थे. प्रतिदिन दो हजार गौएं काटी जाती थीं
मांस सहित अन्‍न का दान करने के कारण राजा रंतिदेव की अतुलनीय कीर्ति हुई.
इस वर्णन को पढ कर कोई भी व्‍यक्ति समझ सकता है कि गोमांस दान करने से यदि राजा रंतिदेव की कीर्ति फैली तो इस का अर्थ है कि तब गोवध सराहनीय कार्य था, न कि आज की तरह निंदनीय


रंतिदेव का उल्‍लेख महाभारत में अन्‍यत्र भी आता है. शांति पर्व, अध्‍याय 29, श्‍लोक 123 में आता है कि राजा रंतिदेव ने गौओं की जा खालें उतारीं, उन से रक्‍त चूचू कर एक महानदी बह निकली थी. वह नदी चर्मण्‍वती (चंचल) कहलाई.

महानदी चर्मराशेरूत्‍क्‍लेदात् संसृजे यतः
ततश्‍चर्मण्‍वतीत्‍येवं विख्‍याता सा महानदी

कुछ लो इस सीधे सादे श्‍लोक का अर्थ बदलने से भी बाज नहीं आते. वे इस का अर्थ यह कहते हैं कि चर्मण्‍वती नदी जीवित गौओं के चमडे पर दान के समय छिडके गए पानी की बूंदों से बह निकली.
इस कपोलकप्ति अर्थ को शाद कोई स्‍वीकार कर ही लेता यदि कालिदास का 'मेघदूत' नामक प्रसिद्ध खंडकाव्‍य पास न होता. 'मेघदूत' में कालिदास ने एक जग लिखा है

व्‍यालंबेथाः सुरभितनयालम्‍भजां मानयिष्‍यन्
स्रोतोमूर्त्‍या भुवि परिणतां रंतिदेवस्‍य कीर्तिम

यह पद्य पूर्वमेघ में आता है. विभिन्‍न संस्‍करणों में इस की संख्‍या 45 या 48 या 49 है. इस का अर्थ हैः ''हे मेघ, तुम गौओं के आलंभन (कत्‍ल) से धरती पर नदी के रूप में बह निकली राजा रंतिदेव की कीर्ति पर अवश्‍य झुकना.''

aage neechle link par padhen

http://www.scribd.com/doc/24669576/प्राचीन-भारत-में-गोहत्‍या-एवं-गोमांसाहार-India-Cow

hamen in granthon par vichhar karna chahiye,, dekho 


वेदों में पृथ्‍वी खडी है
यह बात चौथी कक्षा का विद्यार्थी भी जानता है कि यह घूमती है लेकिन वेदों में लिखा पृथ्‍वी खडी है
यः पृथ्‍वी व्‍यथमानामद्रहत् यः जनास इंद्रः--- ऋ. 2/12/2
अर्थात है मनुष्‍यो, जिसने कांपती हुई पृथ्‍वी को स्थिर किया, वह इंद्र है


वेदों का घूमता सूर्य
प्रारंभिक स्कूल का विद्यार्थी भी जानता है सूर्य वहीं खडा है वेदों में सूर्य को रथ पर सवार होकर चलने वाला कहा गया है

उदु तयं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः,
दृशे विश्‍वाय सूर्यम ----- ऋ. 1/50/1

अर्थात सूर्य प्रकाशमान है और सारे प्राणियों को जानता है. सूर्य के घोडे उसे सारे संसार के दर्शन के लिए ऊपर ले जाते हैं

वेदों में ग्रहणों के संबंध में जो जानकारी भरी हुई है उसे पढ लेने के बाद कोई जरा सी बुद्धि‍ रखने वाला व्‍यक्ति भी वेदों में विज्ञान ढूंडने की बात न करेगा
सूर्य ग्रहण के बारे में ऋग्‍वेद का कहना है कि सूर्य को स्‍वर्भानु नामक असुर आ दबोचता है और अत्रि व अत्रिपुत्र उसे उस असुर से मुक्‍त करते हैं, तब ग्रहण समाप्‍त होता है.
(क)
यतृत्‍वा सूर्य स्‍वर्भानुस्‍तमसाविध्‍यदासुरः
अक्षेत्रविद् यथा गुग्‍धो भुवनान्‍यदीधयुः -- ऋ 5/ 40/ 5

इसी प्रकार अथर्ववेद 19/ 9/ 10 में चंद्र को ग्रहण लगाने वाला राहू असुर बताया गया है

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http://www.scribd.com/doc/24669586/वेंदों-में-विज्ञान